डेस्क : भारतीय राजनीति में वंशवाद की जड़ें इतनी गहरी पैठ बना चुकी हैं कि यह अब लगभग हर राज्य और बड़े दल की पहचान बन गया है। मज़ेदार तथ्य यह है कि जिन नेताओं ने राजनीति में प्रवेश कभी उधार या चंदे के सहारे किया, वही आगे चलकर ऐसे साम्राज्य खड़े कर गए जहाँ टिकट बांटने से लेकर उच्च पदों के वितरण तक सब कुछ परिवारों के इर्द-गिर्द केंद्रित हो गया।
बिहार में लालू प्रसाद यादव हों या लोक जनशक्ति पार्टी के संस्थापक रामविलास पासवान दोनों ने अपनी राजनीतिक विरासत को परिवार में ही सुरक्षित रखा। लालू यादव ने पार्टी की कमान आज भी नहीं छोड़ी है और अपने बच्चों को राजनीति में स्थापित कर दिया है। पासवान अपने बेटे को राष्ट्रीय अध्यक्ष और भतीजे को प्रदेश अध्यक्ष बना गए, और आज उनकी पार्टी उसी नींव पर फल-फूल रही है।
महाराष्ट्र में शरद पवार का परिवार, हरियाणा में चौटाला वंश, पंजाब में बादल परिवार तथा उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव का राजनीतिक कुनबा सभी इस परंपरा के ज्वलंत उदाहरण हैं। दक्षिण भारत में करूणानिधि, एम.जी. रामचंद्रन और चंद्रबाबू नायडू की पारिवारिक राजनीति दशकों से चली आ रही है। देश की वाणिज्यिक राजधानी मुंबई में ठाकरे परिवार का प्रभाव किसी से छिपा नहीं।
कांग्रेस, जो देश की सबसे पुरानी पार्टी है, में तो वंशवाद की परंपरा छह दशकों से अधिक समय से चली आ रही है। बड़े दलों से लेकर क्षेत्रीय इकाइयों तक, परिवार-आधारित नेतृत्व आज राजनीतिक संस्कृति का स्थायी हिस्सा बन चुका है।
विश्लेषकों का मानना है कि इन दलों ने लोकतांत्रिक मर्यादाओं की अनदेखी कर जातिवाद, क्षेत्रवाद, समूह-हित और भावनात्मक राजनीति को बढ़ावा देकर अपनी जड़ें मजबूत कीं। यही कारण है कि भ्रष्टाचार, धन-आधारित राजनीति, योजनाओं की लूट, मनमानी और बेमेल गठबंधनों की प्रवृत्ति इन दलों के इर्द-गिर्द गहराती गई।
बिहार के ताज़ा राजनीतिक परिदृश्य में उम्मीद थी कि एनडीए की बहुमत वाली सरकार वंशवादी राजनीति पर रोक लगाएगी, परंतु विश्लेषकों के अनुसार स्वयं एनडीए खेमे में ऐसे प्रयोगों ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं।
सवाल यह है कि जब सत्ता में मौजूद दल भी उसी राह पर चलते दिख रहे हों, तो बदलाव की उम्मीद कहां से की जाए?
वंशवादी दल और नेता लोकतंत्र को भीतर ही भीतर दीमक की तरह खा रहे हैं। विचारधारा-आधारित बड़े दलों को इन व्यक्तिवादी और जातिवादी समूहों ने कमजोर किया है। इनका लक्ष्य राष्ट्रवाद, समाजवाद या किसी वैचारिक दर्शन से कम और निजी हितों से अधिक जुड़ा प्रतीत होता है।
जब तक जनता इन्हें समर्थन देती रहेगी, ये दल भी कायम रहेंगे और बड़े दल बहुमत जुटाने की मजबूरी में इनके साथ कदमताल करते रहेंगे।


