क्या आप जानते है देश में पहले महिलाओं को छाती ढंकने के लिए देना पड़ता था टैक्स? जानें- ये आपत्तिजनक नियम ?

डेस्क : आज देश आज़ाद है। हर कोई अपने तरीके से रहता है। लेकिन आजादी से पहले कई ऐसे नियम बनाए गए जिनका पालन करना आज संभव नहीं है। यह एक आपत्तिजनक कानून था, जिसके तहत महिलाएं अपनी छाती नहीं ढक सकती थीं। जबकि छाती को ढकने पर स्तन के आकार के हिसाब से टैक्स देना पड़ता था। इस कानून का विरोध करने पर महिलाओं को सजा भी दी गई। आइए जानते हैं किस राज्य में लागू हुआ ये कानून।

जानिए कहां का है ये नियम

आपको बता दें कि केरल के त्रावणकोर में निचली जाति की महिलाओं को अपना सीना ढकने के लिए टैक्स देना पड़ता था। अगर कोई अधिकारी या ब्राह्मण इन महिलाओं के सामने आता था तो उसे अपने सीने से कपड़े उतारने पड़ते थे, इतना ही नहीं उसे अपना सीना ढकने के बदले में कर भी देना पड़ता था। इसके अलावा किसी भी सार्वजनिक स्थान पर उन्हें इस नियम का पालन करना होगा। त्रावणकोर में इस टैक्स को बहुत सख्ती से लागू किया गया था। हालाँकि, कड़े विरोध के बाद अंग्रेजों के दबाव में इस टैक्स को हटाना पड़ा।

आपत्तिजनक नियम

चेन्नई में पहला अंग्रेजी अखबार लॉन्च करने वाले “मद्रास कूरियर” की रिपोर्ट के अनुसार, केरल में निचली जाति की महिलाओं के लिए सख्त नियम बनाए गए थे। इस नियम के मुताबिक, अगर कोई महिला अपना सीना ढकती थी तो उसे अपने स्तनों के आकार पर टैक्स देना पड़ता था। रिपोर्ट के मुताबिक ये आपत्तिजनक नियम और टैक्स त्रावणकोर के राजा के दिमाग की उपज थे। जिसे उन्होंने अपने सलाहकारों की सलाह पर सख्ती से लागू किया।

विरोध करने पर सज़ा

बीबीसी मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, जो महिलाएं टैक्स नहीं देती थीं और आदेशों का पालन नहीं करती थीं, उन्हें भी सजा दी जाती थी। इतना ही नहीं, जब नांगेली नाम की एक निचली जाति की महिला ने इस अमानवीय कर का विरोध किया तो सजा के तौर पर उसके स्तन काट दिए गए, जिससे उसकी मृत्यु हो गई।

इस मौत के बाद निचली जाति के लोग एकजुट हो गए और ईसाई महिलाओं समेत अन्य महिलाओं ने इसका विरोध करना शुरू कर दिया। इस दौरान वे अंग्रेजों और मिशनरियों के पास गये और उन्हें इस आपत्तिजनक कानून के बारे में बताया। जिसके बाद अंग्रेजों के दबाव में त्रावणकोर को इसे बंद करना पड़ा।

कैसे खत्म हुआ ये कानून?

ब्रिटिश गवर्नर चार्ल्स ट्रेवेलियन ने 1859 में इसे ख़त्म करने का आदेश दिया। उस समय, नादर महिलाओं ने कपड़ों की एक शैली विकसित की थी जो उच्च वर्ग की हिंदू महिलाओं की शैली के समान थी। आख़िरकार 1865 के आदेश में सभी जाति की महिलाओं को बाहरी वस्त्र पहनने की आज़ादी मिल गई। आपको बता दें कि इस कुप्रथा का जिक्र दीवान जर्मनी दास ने अपनी किताब महारानी में भी किया है।