आखिर बिहार में 80 के दशक के बाद क्यों बंद हो गए बिहार के सभी सरकारी चीनी मिल व कारखाने

डेस्क : किसानों को लेकर चिल्ल – पों मचाने में किसान नेता सहित देश-भर के राजनीतिक दलों के नेता लगे हैं। लेकिन, बिहार के किसान हितैषी चीनी मिलों का एक एक कर बंद हो जाना सबसे खतरनाक और जनविरोधी रहा। लेकिन, किसी राजनीतिक दल और किसान नेता इसपर कोई पहल नहीं करवा सके। एक एक मरते रहे ये बिहार के चीनी मिल उससे जुड़े किसानों और मजदूरों का परदेश पलायन का सबसे कारण बन गया।

चीनी मिल पृष्ठभूमि के गांवों के लोग सबसे ज्यादा अपना घर-बार छोडकर बिहार के बाहर दर दर की ठोकरें खा रहे हैं। कभी देश के कुल चीनी खपत के 40 प्रतिशत पूरा करनेवाले ये बिहार के चीनी कारखाने बिहार के नेताओं की अदूरदर्शिता और भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ते गए। 1980 के आसपास दरभंगा का सकरी चीनी मिल बिहार का प्रथम तालाबंदी का चीनी कारखाना बना और धीरे-धीरे यह छूत की तरह पूरे राज्य में फ़ैल गया। कभी बिहार में 33 चीनी मिलें थीं। वह भी सरकारी ।

आप विश्वास करें या नहीं करें। तीन गंगा के दक्षिण और 30 गंगा के उत्तर। ‌सरकारी क्षेत्र में शायद आज एक भी चीनी मिल चालू नहीं है। जो 10-11 है भी तो वे निजी क्षेत्र के हैं। जो किसानों के गन्ने ले रहे हैं, चीनी बना रहे हैं और किसानों को गन्ना का मूल्य दे भी रहे हैं। सरकारी चीनी मिलों के बंद होने का इतिहास कांग्रेस के शासनकाल 1980 से शुरू होता है और लालू राबड़ी के राज 1990-2005 तक सारे बंद हो जाते हैं। प्राईवेट कारखाने भी घटकर दो दर्जन भर रह गए। आखिर बिहार के चीनी कारखाने का हश्र ऐसा क्यों हुआ। बिहार में चीनी का पहला कारखाना अंग्रेजों के समय 1903 में मढ़ौरा में खुला। इसके बाद चंपारण के बाराचकिया, दरभंगा के लोहट और रैयाम, समस्तीपुर,सकरी, चंपारण, सीतामढ़ी आदि जगहों पर खुलते रहे।

आजादी तक इन कारखानों की संख्या 33 तक पहुंच गयी। सरकारी संरक्षित ये उद्योग इतने विकसित हुए कि बिहार के चीनी मिलों के उत्पादन की वजह से 1938-39 में भारत चीनी में आत्मनिर्भर हो गया। आजादी के बाद श्री बाबू के काल तक यह उद्योग तेजी से फैलता रहा। लेकिन,1967 के बाद बिहार के जातिवादी और सत्तालोभी नेतृत्व किसानों की आत्मा कहे जाने वाले इस उद्योग को बर्बाद करते गए। कारखाने के सरकारी करण के बावजूद कारखाने के बंद होते जाने के कितने कारण हो सकते थे, लेकिन, परिणाम चीनी मिल क्षेत्र के मजदूर, किसान,व्यवसायी भुगत रहे हैं। जाति और जातीयता परोसकर वोट लेनेवाले नेताओं की नजर इन बंद होते उद्योग की तरफ न गए न ही अभी जा रहे हैं।