जानिए क्यों विरोधी भी थे रघुवंश बाबू के मुरीद… एक अनकही और अनसुनी सी कहानी !

डेस्क : आज अचनाक से बिहार की सियासत को ऐसा झटका लगा है जिसकी भरपाई शायद ही कभी हो पाए। अभी बिहार में विधानसभा चुनाव होने को है , ऐसे में हर रोज राजनीति उठा-पटक जारी है। पर आज भगवन ने कुछ ऐसी उठा – पटक कर दी जिसकी शायद ही किसी को उम्मीद हो। इंसान जब कुछ करता है तो उसके बदलने की उम्मीद होती है पर भगवान के किये की बदलने की उम्मीद …..

पिछले 3-4 दिनों से बिहार की राजनीति में रघुवंश बाबू अपने इस्तीफे को लेकर छाए हुए थे पर आज उनका यूँ अचनाक दुनिया से ही चले जाना हर किसी को निशब्द किये हुए है। बिहार में जब भी रघुवंश प्रसाद सिंह की चर्चा होगी तो चाहे दलित या सवर्ण … सबके मुंह से यही निकलेगा कि वो सबके नेता थे। वो नेता जो खरी-खरी बोलते थे चाहे सामने RJD सुप्रीमो लालू यादव भी खुद ही खड़े क्यों न हों।

चलिए जानते है रघुवंश बाबू की जिंदगी के वो पन्ने जिसे शायद ही किसी ने पढ़ा हो – कहते हैं कि नेता वही जो सबका, जन प्रतिनिधि वही जो सवर्ण-दलित में भेद न करे और दोनों के विकास की न सिर्फ बात करे बल्कि वही काम भी। आज के दौर में जब किसी पार्टी सुप्रीमो के खिलाफ कई नेताओं के कंठ से आवाज तक नहीं निकलती, लोगों को पद छिन जाने का डर होता है। वैसे दौर में मैथ्स डिग्रीधारी प्रोफेसर साहब यानि अपने रघुवंश प्रसाद सिंह का गणित बिल्कुल अलग था… और ये विचार धरा उन्होंने अपने मरते दम तक निभाई। तेजस्वी-तेजप्रताप को तो छोड़ ही दीजिए, वो तो लालू को भी अंतिम सांस तक खरी-खरी सुनाते रहे। रघुवंश बाबू को बिहार का अटल बिहारी वाजपेयी कहें तो कुछ गलत नहीं। ऐसा नेता जिसकी तारीफ विरोधी भी करते रहे।

2009 के चुनाव में कांग्रेस किसी तरह से अपना किला बचा पाई। इसके पीछे सियासी पंडितों ने किसानों की कर्ज माफी और मनरेगा को असल मंत्र बताया। लेकिन जिस प्लान ने कांग्रेस को सत्ता बचाने में मदद की। उसमें मनरेगा का क्रेडिट रघुवंश बाबू को नहीं मिला। संजय बारू ने अपनी किताब ‘एक्सीडेंटल प्राइममिनिस्टर’ में श्रेय लेने की होड़ का जिक्र करते हुए लिखा है ‘पार्टी चाहती है कि मनरेगा का पूरा क्रेडिट राहुल गांधी को दिया जाए. लेकिन आप (मनमोहन सिंह) और रघुवंश प्रसाद सिंह इसके असली हकदार हैं।’ मेरी इस बात पर वो बोले ‘मुझे कोई क्रेडिट नहीं चाहिए।’

बात करे 1974 की जब छात्र आंदोलन जोर पकड़ चुका था तभी सीतामढ़ी के गोयनका कॉलेज के लेक्चरर को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। वो समाजवादी लेक्चरर और कोई नहीं बल्कि खुद रघुवंश बाबू थे। उनके करीबी बताते हैं कि जब वो जेल से छूटे तो उनके लैंडलॉर्ड यानि मकान मालिक सीताराम सिंह ने उन्हें घर खाली करने का आदेश दे दिया। रघुवंश बाबू ने आव देखा न ताव, बगैर किसी सहारे के किराए का मकान छोड़ दिया। उनके करीबी बताते हैं कि फिर तो उनका समय गोयनका कॉलेज के हॉस्टल में बीता और वो भी छात्रों के बीच। छात्र को अगर गुरु का सानिध्य मिल जाए तो क्या बात… ऐसा ही कुछ कॉलेज स्टूडेंट्स के भी साथ था। रोजाना उनका ज्ञान मानों छात्रों के लिए अमृत बन गया, पढ़ाई के साथ-साथ कॉलेज के लड़कों को समाजवाद की खुराक भी मिलने लगी।

एक कहावत है न कि जात न पूछो साधु की। रघुवंश बाबू भी कुछ ऐसे ही थे। 1977 में जब बिहार में मुख्यमंत्री पद के लिए रघुवंश बाबू के सजातीय यानि राजपूत बिरादरी के सत्येंद्र नारायण सिंह और पिछड़े वर्ग के कर्पूरी ठाकुर के नाम की चर्चा थी तब रघुवंश बाबू ने कुछ ऐसा किया कि सब उनके मुरीद हो गए। CM चुनने के लिए जब विधायकों की वोटिंग हुई तो 33 में से 17 राजपूत विधायकों ने कर्पूरी ठाकुर के पक्ष में वोट दिया। उन 17 विधायकों में एक रघुवंश प्रसाद सिंह भी थे जिन्होंने अपनी जाति को समाजवाद के लिए ताक पर रख दिया। भले ही 2014 में रघुवंश प्रसाद सिंह रामा सिंह से लोकसभा चुनाव हार गए थे। लेकिन चाल,चरित्र और चेहरे की लड़ाई कोई विरोधी कभी जीत पाया था न जी पायेगा चाहे उनके पार्टी के ही लोग क्यों न हो। ऐसे ही थे अपने रघुवंश बाबू , जिनकी बस अब यादें ही शेष रह गयी है।