खेल सत्ता का : बिहार की राजनीति का वो काला सच जो अब जरूरत बन गया

डेस्क : पूरे प्रदेश में साल 2020 के विधानसभा चुनाव का महासंग्राम शुरू हो गया है। बिहार की राजनीति का जातीय खेल कोई नया नहीं है। पहले यह पर्दे के पीछे या पार्टी के आधार को आगे रखकर खेला जाता था। बाद के दिनों में यह समीकरण के साथ खुल्लमखुल्ला शुरू कर दिया गया। सन 1990 के दशक में यह सत्ता की पहुंच की चाभी बन गई। 1991 में एक चुनावी सभा में था । मंच पर बिहार के मुख्यमंत्री भी थे। एक नेता ने कहा बिहार में अब जाति की लड़ाई होगी और सत्ता हमारे हाथ में रहेगी। मंच पर उपस्थित एक बुजुर्ग वामपंथी नेता ने उतरकर कहा , लगता है अब हम लोग राजनीति नहीं कर पाएंगे। हुआ भी ऐसा ही।

1991 के लोकसभा चुनाव के बाद बिहार में जातीय रैली, जातीय हिंसा, जातीय वैमनस्यता का सिलसिला सा चल पड़ा। जाति आधारित नेता और कार्यकर्ता तैयार होने लगे। राजनीतिक माहौल जातीय नेताओं का हो गया।वे वोटों के ठेकेदार जैसे बन गए। गांव गांव में ऐसे छुटभैये नेताओं की बाढ़ सी आ गई। हर चीज को जातीय नजरिए से देखने और उस मुहल्ले के उस जाति के वोटों के ठीकेदार बनकर उभरे इन छुठभैयों ने विचार और संघर्ष की राजनीति को कुंद कर दिया। सस्तें में नेता बन जाने की होड़ लग गई। इसी होड़ ने सामाजिक न्याय के कथित शब्द का आठ ले सरकारी धन की लूट और विकास के बजाय जातीयता को बढ़ावा दिया। सरकारी विकास के धन की लूट की राशि का इस्तेमाल राजनीति में होने लगा। काली कमाई वाले, घोटाले बाज , अवैध धंधेबाज राजनीति पर हावी होते गए। मुहल्ले के जातीय नेताओं को धन दीजिए,वे कार्यकर्ता बन जाते।जातीय तनाव का ताना-बाना बुन वोट दिला देते।

इसके बाद उनके रास्ते भी खुलते गए। पंचायत प्रतिनिधियों में चुनकर आने और सरकारी विकास राशि की खुलकर लूटखसोट कर धन अर्जित करनेवाले की महत्त्वाकांक्षा बढ़ती गई और वे सदन की तैयारी में लग गए। जातीय नेताओं ने प्रोत्साहन देना शुरू किया और फिर दल की खोज होने लगीं। दलित वादी पिछड़े वादी नैताओं की बाढ़ आ गई। नेताओं के,जाति के ,परिवार के ,व्यक्ति के दल बनने लगे। दल के लिए धन चाहिए। चुनाव टिकटों की बिक्री शुरू हो गई। राष्ट्रीय दल भी ऐसे व्यक्ति,जाति, परिवार की पार्टियों के पिछलग्गू बनती गई। वोट भले उस व्यक्ति का हो या। हो , राजनीति में जोड़-तोड़ जरूर करने लगे। गठबंधन और महागठबंधन की राजनीति का दौर शुरू हो गया।

भले उस जाति के मतदाताओं का वोट उनके कहने पर पड़े नहीं, लेकिन जाति के वोट के वे स्वंयभू ठीकेदारी उनकी जरूर हो जाती। महागठबंधन की राजनीति का हश्र देखा जा रहा है। हर दल बारगेनिंग में लगा है। अपने परिवार की, अपने पुत्रों की, अपने स्वार्थ की राजनीति को जातीयता की चाशनी में डुबोकर सबको आचार खिलाने की परंपरा को नेताओं से ज्यादा जातीय जनता ने गौरवान्वित किया है। हमारे जाति का अफसर, हमारे जाति का मंत्री, हमारे जाति का मुख्य मंत्री यही तो हो रहा है। देश, विकास, किसान, छात्र, बेरोजगार सब गायब। सीटों की मारामारी। सीट झटकने की लड़ाई तेज हैं।