Bihar Election 2025

बेगूसराय से बिहार तक : चुनाव आते ही शुरू हुआ ‘बिगड़े बोलों’ का मौसम, क्या यही है लोकतंत्र की दिशा?

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बिहार में एक बार फिर चुनावी मौसम की दस्तक होते ही ज़ुबानें बेलगाम हो गई हैं। नेता अब विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार जैसे मुद्दों को छोड़ सीधे एक-दूसरे की जातियों, धर्मों और पुरानी दुश्मनियों पर निशाना साधने में जुट गए हैं। यह परंपरा कोई नई नहीं है — पिछले तीन दशकों से बिहार की राजनीति का ये ही “कुबोल वाला मॉडल” चलता आ रहा है।

जाति, धर्म, और ज़हर- बिहार का पुराना चुनावी फॉर्मूला

बिहार में चुनाव अब विचारों पर नहीं, वोट बैंक की जातीय गोलबंदी पर लड़ा जाता है। कोई किसी की बेटी भगा ले जाए, तो देखनेवाले पहले यह तय करते हैं कि लड़का किस जाति का है। भ्रष्टाचार हो, अपराध हो — सब माफ़, अगर अपराधी “हमारे समाज” का है। क़ानून, नीति, और चरित्र पीछे छूट जाते हैं — आगे रह जाते हैं जातीय समीकरण, उकसावे और झूठे जज़्बात।

नेता बोले…और जनता बोले – “इनसे तो चुप रहना बेहतर”

बिहार की राजनीति में अनर्गल बयानबाज़ी की शुरुआत किसी आम छुटभैये नेता ने नहीं, बल्कि बड़े नामों और मुख्यमंत्रियों ने की थी। 1991 के लोकसभा चुनाव की यादें आज भी ताज़ा हैं, जब एक सभा में बेगूसराय के उम्मीदवार की जातीय टिप्पणी सुनकर बलिया से चुनाव लड़ रहे वरिष्ठ नेता सूर्य नारायण सिंह मंच छोड़कर चल पड़े थे। बोले – “अगर यही राजनीति है, तो हम जैसे लोगों के लिए अब जगह नहीं बची।”

“रे मूढ़, बोलने नहीं आता तो चुप रहना सीख!”

बिहार की चुनावी राजनीति अब चरित्र से नहीं, कैसे ज़्यादा ज़हर उगला जाए इस प्रतियोगिता में बदल गई है। जातीय नफ़रत फैलाना, धार्मिक उन्माद भड़काना, अपराधियों को जाति का हीरो बनाना इन सबने लोकतंत्र की आत्मा को घायल कर दिया है। कभी आदर्शों की धरती रहे बिहार में अब ‘सत्ता के सौदागर’ और ‘जाति के जुगाड़ू’ ही मंच के राजा बन चुके हैं। लोकतंत्र की जमीन पर जब विचार की जगह विघटन बोया जाए, तो फसल में नेता उगते हैं – नेता नहीं, सिर्फ वोट के व्यापारी।

अब सवाल आपसे है —

क्या हम यही राजनीति डिज़र्व करते हैं? क्या हम फिर उन्हीं जातिवादी नारों पर वोट करेंगे?
या इस बार नेता से पूछेंगे – “काम क्या किया है?”

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