IPS Vikas Vaibhav : आज पूरा देश जहां हर्षोल्लास के साथ 79वां स्वतंत्रता दिवस मना रहा है, वहीं बिहार के रोहतास जिले की कैमूर पहाड़ी की कहानी आज भी लोगों को रोमांचित करती है। यह वही इलाका है जहां आज़ादी के 62 साल बाद, 26 जनवरी 2009 को पहली बार तिरंगा लहराया गया था। कभी नक्सलियों का गढ़ मानी जाने वाली इस पहाड़ी पर सरकार की पहुंच नामुमकिन समझी जाती थी।
दशकों तक यहां बंदूक का राज रहा। हथियारबंद नक्सली गांववालों के घरों में घुसकर खाना खाते, विरोध करने वालों को गोली मार देते। पुलिस भी शायद ही कभी यहां जाती थी। हालात, इतने खतरनाक थे कि 2008 में मुठभेड़ के दौरान गोलियां महज छह इंच की दूरी से आईपीएस विकास वैभव के पास से गुजरी थीं। उसी दिन बेगूसराय के बीहट के मूल निवासी विकास वैभव ने ठान लिया कि कैमूर पहाड़ी को हिंसा और डर से निकालकर शांति और विकास की राह पर ले जाएंगे।
‘ऑपरेशन विध्वंस’ और पहला वोट
रोहतास एसपी रहते 2009 में विकास वैभव ने ‘ऑपरेशन विध्वंस’ शुरू किया। यह केवल पुलिस एक्शन नहीं था, बल्कि लोगों के दिल से डर मिटाने और लोकतंत्र पर भरोसा दिलाने का अभियान था। चुनौती इतनी बड़ी थी कि उसी साल लोकसभा चुनाव में नक्सलियों ने बहिष्कार कर “पहला वोट, पहली गोली” का नारा दिया। गांव में कोई भी मतदान के लिए तैयार नहीं था।
तब विकास वैभव ने नक्सलवाद के विरोधी और अपने परिचित ग्रामीण कमता यादव से वोट डालने का आग्रह किया। खतरे के बावजूद कमता यादव राजी हुए। उन्हें डेहरी से हेलीकॉप्टर द्वारा लाया गया। सिर्फ 400 वोट डलवाने के लिए 2 हेलीकॉप्टर और 20 कंपनी सुरक्षा बल तैनात हुए। जब कमता यादव ने पहला वोट डाला, तो गांववालों का डर टूटा और मतदान केंद्र पर लगभग 100% वोटिंग हुई। उसी चुनाव के बाद कैमूर पहाड़ी पर पहली बार तिरंगा फहराया गया।
बंदूक से ढोल-नगाड़ों तक
‘ऑपरेशन विध्वंस’ ने नक्सलियों को पीछे धकेला और उनके परिवारों को भी मुख्यधारा में लौटने को प्रेरित किया। कई ने हथियार डाल दिए, तो कई मुठभेड़ों में मारे गए। सांस्कृतिक कार्यक्रमों, ‘स्वर्ण महोत्सव’ और सामुदायिक पुलिसिंग से गांवों में भरोसा लौटा। जहां कभी गोलियों की गूंज थी, वहां अब गीत-संगीत और ढोल-नगाड़ों की थाप सुनाई देने लगी।
4 दिसंबर 2021 को, पूरे 13 साल बाद, जब विकास वैभव फिर रोहतासगढ़ पहुंचे, तो इस बार न बंदूकें थीं, न गोलियां—सिर्फ खुशहाल चेहरे, नाचते-गाते ग्रामीण और स्वागत गीत। कैमूर पहाड़ी में आई स्थायी शांति और लोकतांत्रिक जागरूकता आज भी कायम है। बेगूसराय के इस सपूत की कहानी सिर्फ कानून-व्यवस्था की सफलता नहीं, बल्कि यह सबूत है कि इच्छाशक्ति और भरोसा—दोनों मिलकर बंदूक के साए में दबे लोकतंत्र को भी जगमगा सकते हैं।