क्रांतिकारी कवि थे ,रामधारी सिंह दिनकर,आज उनकी पूरे देश में 111 वीं जयंती धूमधाम से मनाई जा रही है।

बेगूसराय । कविताओं से भारतीय समाज का रिश्ता पुराना है। अगर बात ऐसे कवियों की हो जिन्होंने आजादी की लड़ाई से लेकर उसके बाद तक अपनी लेखनी से जनता को उसके अधिकारों के प्रति जागरूक किया हो तो उसमें राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर का नाम जरूर आता है ।आज पूरे राष्ट्र राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के जन्मदिन को लेकर नो सिर्फ बिहार के बेगूसराय जिला के सिमरिया गांव में बल्कि संपूर्ण देश में उनकी 111 वीं जयंती पूरे धूमधाम से मनाई जा रही है। खास करके उनके पैतृक गांव सिमरिया में दिनकर की जयंती को लेकर गांव के बच्चे ,बूढ़े जवान एवं महिलाओं में खास उत्साह देखा जा रहा है ।दिनकर का जन्म 23 सितंबर 1908 को बिहार राज्य के बेगूसराय जिला के सिमरिया गांव में हुआ था ।
3 साल की उम्र में सिर से पिता का साया उठ जाने के कारण उनका बचपन अभावों में बीता। लेकिन घर पर होने वाले रामचरितमानस के पाठ ने दिनकर के भीतर कविता और उनकी समझ के बीज बो दिए थे।

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने हिंदी साहित्य में न सिर्फ वीर रस के काव्य की एक ऊंचाई दी बल्कि अपनी रचनाओं के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना का भी सृजन किया। इसकी एक मिसाल 70 के दशक में संपूर्ण क्रांति के दौर में मिलती है ।दिल्ली के रामलीला मैदान में लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने हजारों लोगों के समक्ष दिनकर की पंक्ति सिंहासन खाली करो कि जनता आती है का उद्घोष कर के तत्कालीन सरकार के खिलाफ विद्रोह का शंखनाद किया था ।दिनकर की पहली रचना प्राण भांग मानी जाती है। इसे उन्होंने 1928 ई० में लिखा था। इसके बाद दिनकर ने रेणुका, हुंकार ,कुरुक्षेत्र ,बापू ,रश्मिरथी लिखा । रेणुका और हुंकार में देशभक्ति की भावना इस कदर भरी हुई थी कि घबराकर अंग्रेजों ने इन किताबों पर प्रतिबंध लगा दिया था ।दिनकर ने निर्भीक होकर अंग्रेजों के खिलाफ तो लिखा ही था ।लेकिन आजादी के बाद के सत्ता चरित्र को भी उजागर करने से नहीं हिचके। दिनकर जवाहरलाल नेहरू के प्रशंसकों में से थे। लेकिन 1962 के युद्ध में सैनिकों की मौत के मुद्दे पर वह नेहरू जी की आलोचना से भी नहीं चूके।

परशुराम की प्रतीक्षा में वह लिखते हैं ।घातक है जो देवता, सदृश दिखता है ,लेकिन कमरे में गलत हुक्म लिखता है ।
जिस पापी को गुण नहीं,
गोत्र प्यारा है ।समझो उसने ही हमें यहां मारा है ।दिनकर का पहला काव्य संग्रह विजय संदेश वर्ष 1928 में प्रकाशित हुआ। इसके बाद उन्होंने कई रचनाएं की। उनकी कुछ प्रमुख रचनाएं परशुराम की प्रतीक्षा ,हुंकार और उर्वशी है। उन्हें वर्ष 1959 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया। पद्मभूषण से सम्मानित दिनकर राज्यसभा के सदस्य भी रहे ।वर्ष 1972 में उन्हें ज्ञानपीठ सम्मान भी दिया गया। 24 अप्रैल 1974 को उनका देहांत हो गया। दिनकर ने अपनी ज्यादातर रचनाएं वीर रस में लिखी। इस बारे में सिमरिया गांव के एक शिक्षक मुचकुंद मोनू कहते हैं कि भूषण के बाद दिनकर ही एकमात्र ऐसे कवि रहे जिन्होंने वीर रस का खूब इस्तेमाल किया ।वह एक ऐसा दौर था जब लोगों के भीतर राष्ट्रभक्ति की भावना जोरों पर थी। दिनकर ने उसी भावना को अपने कविता के माध्यम से आगे बढ़ाया। वह जनकवि थे ।इसलिए उन्हें राष्ट्र कवि भी कहा गया।

देश की आजादी की लड़ाई में भी दिनकर ने अपना योगदान दिया ।वह बापू के बड़े मुरीद थे। हिंदी साहित्य के बड़े नाम दिनकर उर्दू ,संस्कृत ,मैथिली और अंग्रेजी भाषा के भी जानकार थे ।
वर्ष 1999 में उनके नाम से भारत सरकार ने डाक टिकट भी जारी किया ।आपको बता दें कि दिनकर नें हिंदी कविता को छायावाद के भारीपन से मुक्ति दिला कर उसे आम जनता के बीच पहुंचाने का काम किया। यही वजह है कि आज भी दिनकर की कविता लोगों के जुबान पर रहती है।