इस गांव में माँ की गोद में ही दाग देते हैं बच्चे को गर्म सलाखों से – जानिए अंधविश्वास की पूरी कहानी

डेस्क : भारत में अंधविश्वास काफी समय से प्रचलित रहा है। जैसे जैसे समय बीतता गया भारत काल में अन्य अंधविश्वास जैसी गतिविधि और कुरीतियों से भी लोगों का मन उखड़ता चला गया। लेकिन अभी भी देश में कुछ ऐसी जगह है जहां पर गांव में रहने वाले आदिवासी जाति इस तरह की प्रथाओं में लिप्त नजर आती है। आपको बता दें कि झारखंड के पूर्वी सिंहभूम जिले के ग्रामीण इलाकों में इसी तरह की परंपरा देखने को मिलते हैं।

यहां पर माँ अपने बच्चों के पेट की बीमारी दूर करने के लिए उनके पेट में गर्म सलाखें दगवाती हैं उनकी मांओं का मानना है कि अगर बच्चा पेट में सलाखें नहीं लगाएगा तो उसको अनेकों बीमारियां जकड़ लेंगे जो कि पेट से शुरू होती हैं। जब यह हो रहा होता है तो बच्चे को काफी दर्द होता है लेकिन दर्द से तड़पते देखते बच्चे को मां खुश होती हैं।

आखिर परंपरा की आड़ में यह किस तरह की आस्था हमें आज भी देश में देखने को मिलती है जहां पर छोटे और मासूम बच्चों के मुलायम शरीर को इतनी कठिन प्रक्रिया से गुजारा जाता है और इसके पीछे उद्देश्य सिर्फ यही है कि कोई काली ताकत बच्चे को ना लग जाए। आपको बता दें कि एक ओर देश प्रगति कर रहा है तो दूसरी ओर अंधविश्वास आम जनमानस का दिल दहला देती है।

अगर बात करें इस पूरी प्रक्रिया में होता क्या है तो यह प्रक्रिया मकर सक्रांति के दो दिन बाद शुरू होती है जहां पर गांव का ओझा चार मुंह वाली सलाखें लेकर आता है। उसको आग में तपाया जाता है और साथ में एक खाट बिछी होती है। इस खाट पर बच्चे को लेटा दिया जाता है और उसका मुंह ढक दिया जाता है। उसी के साथ बच्चे की नाभि के आस पास चार जगह सरसों का तेल लगा दिया जाता है। लेकिन, यह मंजर बहुत भयावह होता है क्योंकि जैसे ही वह गरम सलाखें बच्चे को लगती है तो बच्चे की चीत्कार से पूरा गांव गूंज उठता है।

बच्चा बहुत जोर से रोता है और उसके सदस्य उसको पकड़ कर रखते हैं जिस वजह से वह खुलकर अपनी चीख पुकार भी नहीं निकाल पाता है जब यह कार्यक्रम समाप्त हो जाता है तो उस दाग वाले स्थान पर सरसों का तेल लगा देते हैं और लोगों का यह मानना है कि यह घाव खुद भर जातें हैं। काफी समय से लोगों को अपने दुधमुहे बच्चों के लिए इस दिन का इंतजार रहता है।

इस तरह की अनेकों अंधविश्वास से भरी परंपराएं हमारे देश में चली आ रही हैं। लोगों का विश्वास इन परंपराओं के प्रति इतना गहरा है कि इसके चलते वह ना ही सरकार की सुनते हैं ना ही किसी ऐसे इंसान की जो उनकी आंखें खोल दे। यहाँ के जाने माने ओझा नारू का कहना है कि विश्वास ही एक ऐसी परंपरा है जिसके दम पर हमारी जिंदगी टिकी हुई है और सदियों से मानव जाति आगे की ओर रुख कर रही है लेकिन हमें यह भी ध्यान रखना है कि इन प्रक्रियाओं से गुजरने के बाद ही इंसान की पेट की बीमारियां खत्म होती हैं क्योंकि अगर बीमारियां नहीं खत्म होती तो लोग अक्सर इस त्यौहार का इंतजार कैसे करते।