भिक्षा देते वक़्त नजरें नीचे क्यों झुका लेते थे ये मुग़ल बादशाह ? बेहद दिलचस्प है इसके पीछे की कहानी

Desk : मुगल साम्रज्य का इतिहास खंगाला जाए तो बेहद दिलचस्प और हैरान करने वाले किस्से निकलकर सामने आते हैं। कुछ मुगल बादशाह अपनी क्रूरता और कुछ अपनी दयालुता के प्रसिद्ध थे। कहा जाता है कि भारत में अपनी बेगम के लिए मकबरा बनाने की शुरुआत रहीम खान-ए-खाना ने की। उन्होंने वर्ष 1598 में अपनी बेगम माहबानो के लिए मकबरा बनवाया था।

जो शाहजहां के ताजमहल बनवाने से 5 दशक पहले की बात है। बेगम माहबानो का यह मकबरा दिल्ली में हुमायूं के मकबरे के पास स्थित है। 1627 में इंतकाल के बाद रहीम को भी यहीं दफनाया गया था। अब्दुल रहीम अकबर के नवरत्नों में से एक थे। रहीम एक उम्दा कवि होने के साथ-साथ महान योद्धा भी थे। वह मुगल सल्तनत की सेना की टुकड़ी के कमांडर भी थे। रहीम के बारे में एक किस्सा बेहद प्रसिद्ध था। कहा जाता है कि रहीम जब भी भीख देते थे तो वह अपनी नजरों को नीचे झुका कर रखते थे। आखिर वह ऐसा क्यों करते थे चलिए जानते हैं…


अकबर की देखरेख में रहीम का पालन-पोषण : हुमायूँ के बेहद भरोसेमंद बैरम खां के बेटे अब्दुल रहीम का जन्म 1557 में हुआ था। जब अकबर की उम्र 13 वर्ष की थी तो हुमायूं ने बैरम खां को उनकी देखरेख की जिम्मेदारी दी थी। अलवर उस वक़्त (उल्वूर) के गजट के मुताबिक जब बैरम खां का गुजरात के पाटण शहर में कत्ल हुआ तब रहीम की उम्र सिर्फ पांच वर्ष थी। बैरम खां की मौत के बाद रहीम का पालन-पोषण अकबर की देखरेख में हुआ।


खान-ए-खाना की उपाधि से नवाजे गए रहीम : शिक्षा पूरी होने के बाद अकबर साम्राज्य में अबुल रहीम को मिर्जा खां की उपाधि से नवाजा गया। रहीम का निकर माहबानो से कराया गया। अकबर के नवरत्नों में शामिल रहीम को 5 हज़ार सैनिकों की टुकड़ी का कमांडर भी बनाया गया। उन्हें कुछ युद्धों में जीत भी हासिल हुई जिसके बाद उन्हें सर्वोच्च उपाधि मीर अर्ज हासिल की। 1984 में अकबर ने रहीम को खान-ए-खाना की उपाधि से नवाजा। हालांकि इस दौरान उन्हें हार भी देखनी पड़ी। रहीम के बारे में सबसे चर्चित है उनके भिक्षा देने का तरीका। कहा जाता है कि उन्होंने कभी भी भिक्षा देने वाले की तरफ नहीं देखा। भिक्षा देते वक़्त उनकी नजरें हमेशा नीचे की तरफ होती थीं। प्रख्यात आलोचक रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है कि रहीम अपने समय के कर्ण माने जाते थे कोई उनके पास से खाली हाथ नहीं लौटता था। खास बात ये है कि वह जब भी किसी को भिक्षा देते थे तो बड़ी विनम्रता से नीचे की तरफ टकटकी बांधे रहते थे।


भिक्षा के तरीके पर तुलसीदास ने रहीम को भेजा ‘दोहा’ : तुलसीदास जी को जब इस बारे में पता चला तो उन्होंने एक दोहा लिख रहीम को भेज दिया। वो दोहा था, “ऐसी देनी देन ज्यूं, कित सीखे हो सैन। ज्यों-ज्यों कर ऊंच्यो करो, त्यों-त्यों नीचे नैन” जिसका मतलब (यानी कि तुम ऐसे भिक्षा क्यों देते हो? तुमने यह कहां से सीखा? तुम्हारे हाथ जितने ऊंचे हैं, तुम्हारें आंखें नीची हैं… ) तुलसीदास के इस दोहे के जवाब में रहीम ने भी लिख भेजा…“देनहार कोई और है, भेजत है दिन रैन. लोग भरम हम पर धरें, याते नीचे नैन” मतलब (यानी दाता तो कोई और है जो दिन-रात दे रहा है, लेकिन दुनिया मुझे श्रेय देती है, इसलिए मैं अपनी आंखें नीची करता हूं)