मुगल के अंतिम बादशाह बहादुर शाह जफर के शासनकाल तक भारत में अंग्रेजों का प्रवेश हो चुका था। और अंग्रेजों ने उन्हें बगावत के आरोप में रंगून (म्यांमार) भेज दिया था। जिसके बाद उन्होंने अपना अंतिम समय यहीं बिताया था। बहादुर शाह जफर मुगल इतिहास के सबसे कमजोर शासक माने जाते हैं। लेकिन वह उर्दू के एक अच्छे शायर थे। रंगून में जीवन व्यतीत करने के दौरान उन्होंने लिखा था, कितना है बद-नसीब जफर दफ्न के लिए दो गज ज़मीन भी न मिला कू-ए-यार में. कू-ए-यार यानी प्रेमिका की गली। दरअसल, बहादुर शाह जफर के परिवार को दरदर भटकना पड़ा था।
बहादुर शाह जफर के पोते रईस बख्त जुबैरूद्दीन गोरगान पर इतिहासकार मुश्ताक अहमद ने एक किताब लिखी- आतिश-ए-पिन्हां। गोरगान बहादुर शाह जफर के बड़े बेटे का बेटा था। किताब के मुताबिक, 1857 के विद्रोह में अगर मुगल सल्तनत का तख्ता नहीं पलटता, तो गोरगान दिल्ली में गद्दीनशीं होते। लेकिन तब तक अंग्रेजी हुकूमत हावी हो चुकी थी, जिसने इस परिवार को भटकने को मजबूर कर दिया।
रंगून भेजे जाने से पहले बहादुर शाह जफर बेगम समरू की हवेली में रहते थे जहां 40 नाम का एक अंग्रेज अफसर उनकी निगरानी करता था हिंदुस्तानियों अंग्रेजों का विरोध किया तो बहादुर शाह जफर उनके साथ खड़े हुए जिसके बाद उन्हें रंगून रवाना कर दिया गया। बहादुर शाह जफर के रंगून जाने के बाद उनके पोते गोरगान को बहुत भटकना पड़ा था सबसे पहले वह मध्यप्रदेश के रतलाम पहुंचे। उसके बाद राजस्थान के कई इलाकों में रहे और फिर इस्लामाबाद चले गए। जब यहां भी उनका मन नहीं लगा तो वह बिहार के अजीमाबाद (अब का पटना) चले गए।
दरदर भटके गोरगान : गोरगान ने अपनी किताब मौज-ए-सुल्तानी. मौज-ए-सुल्तानी में बताया कि पटना शहर के लोग बहुत ही सभ्य और शिष्टाचार हुआ करते थे और उन्हें इस्लामपुर के जागीरदार चौधरी जहरूलहक से उन्हें बहुत प्रेम और सम्मान मिला। गोरगान जब कुछ वक्त के लिए भागलपुर थे तो उनकी मुलाकात दरभंगा महाराज लक्ष्मेश्वर सिंह के भाई कुंवर रामेश्वर से हुई। इस दौरान उन्होंने उसे अपनी परेशानियों से अवगत कराया।
17 मार्च 1881 को वो दरभंगा आ गए। यहां दरभंगा के एक नामी रईस मुहम्मद सादिक अली के यहां कुछ दिनों उनके रहने का इंतजाम किया गया। महाराज लक्ष्मेश्वर सिंह की विनम्रता और आवभगत से प्रभावित होकर गोरगान ने दरभंगा को अपने लिए सुरक्षित महसूस किया। इसके बाद वो अपने पूरे परिवार को लेकर दरभंगा आ गए। दरभंगा के राजा ने तब अपने महल के पास ही के कटहलबाड़ी मोहल्ले में पूरे परिवार के लिए एक घर और मस्जिद का निर्माण करवाया साल 1883 में गोरगान के इकलौते बेटे की हैजा के चलते मौत हो गई बेटे की मौत के बाद ही उनकी बेगम का भी निधन हो गया पत्नी और बेटे की मौत के बाद गौर गान बुरी तरह तन्हा हो गए और उन्होंने दरभंगा छोड़कर जाने का फैसला किया लेकिन दरभंगा के महाराज ने उन्हें मना कर रोक लिया इसके बाद वह दरभंगा में ही रहे और 85 साल की उम्र में दुनिया को अलविदा कह दिया।