आखिर मुगल बादशाह (शाहजहां) अपनी बेगम से सचमुच करते थे प्यार, ताजमहल के अलावा ये रहे अन्य सबूत

Desk : मुगल बादशाह शाहजहां और मुमताज़ महल की प्रेम कहानी से हम वाखिफ़ है, जिसका जीता-जगता उदाहरण ताजमहल है। जो विश्वभर में प्यार की निशानी के तौर पर मौजूद है। जिस मुमताज़ की खूबसूरती के चर्चे मुग़ल सल्तनत में हमेशा बने रहते थे वह सिर्फ हुस्न की मल्लिका नहीं बल्कि शासन करने में भी खूब निपूर्ण थी। जब शाहजहां ने मुमताज़ को पहली बार देखा था तो वह उसी पल उनपर मोहित हो गए।

दुनिया को अलविदा कहने से पहले मुमताज़ ने शाहजहां से किसी भी दूसरी महिला से बच्चे पैदा न करने का एक वादा लिया। जब मुमताज का निधन हुआ तो शाहजहां को मुगल सल्तनत को संभाले सिर्फ 4 साल हुए थे। मुमताज़ के निधन के बाद से शाहजहां का राजपाठ में ठीक तरह से मन नहीं लगता था। 13 बच्चों के जन्म के बाद मुमताज़ का शरीर बेहद कमज़ोर हो गया था और 17 जून, 1631 को बुरहानपुर में 14वें बच्चे को जन्म देते समय मुमताज ने संसार छोड़ दिया।

मुमताज़ और शाहजहां का 14वां बच्चा एक लड़की थी, जिससे वह सबसे ज्यादा प्यार करते थे। मुमताज़ ने अपनी मौत से पहले शाहजहां को एक सपना सुनाया। अपने अंतिम क्षणों में सपने का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा, मैंने सपने में ऐसा सुंदर महल देखा जो दुनिया में कहीं भी नहीं है। मैं चाहती हूं कि मेरे लिए आप वैसा ही महल बनवाएं। इसके बाद शाहजहां ने ऐसे महल को बनाने का आदेश दिया जिसकी भव्यता अपने आप में अतुल्य थी।


मुमताज़ को 10 लाख रुपए का सालाना वजीफा : 36 साल की उम्र में शहाबुद्दीन मोहम्मद ख़ुर्रम को शाहजहां की उपाधि दी गई। शाहजहां की ताजपोशी के समारोह का पूरा आयोजन मुमताज़ महल ने खुद किया। मुमताज ने उस वक़्त जवाहरात, सोने और चांदी के फूल से शाहजहां की नज़र उतारी। इस सम्मान से खुश होकर शाहजहां ने मुमताज़ दो लाख अशर्फ़ियां, कुछ लाख रुपये तोहफे में दिए।इतना ही नहीं, उनके लिए दस लाख रुपए का सालाना वजीफा तय किया।
मुमताज़ को मिली कई उपाधियां : मुमताज़ के प्रेम से लबरेज शाहजहां ने अपनी बेगम को कई उपाधियां और सुख सुविधाएं दी जो उनसे पहले किसी मुगल रानी को नसीब भी नहीं हुईं। मुमताज महल को ‘पादशाह बेगम’, ‘मलिका-ए-जहां’, ‘मलिका-उज़-ज़मा’, और ‘मलिका-ए-हिन्द’ जैसे बड़ी उपाधियों से नवाजा गया।

बेगम होने के साथ दोस्त और सलाहकार भी थीं मुमताज़ महल (शाहजहां ने मुमताज़ को वो सभी बराबरी के हक़ दिए थे जो कभी किसी अन्य मुग़ल बेगम को नहीं मिले थे। बादशाह उन्हें हजरत कहकर सम्बोधित किया करते थे। मुमताज़ शाहजहां के लिए बेगम होने के साथ एक विश्वसनीय दोस्त और सलाहकार भी थीं बावजूद उनमें कभी सत्ता पाने की चाह नहीं देखी गई।