बिहार में शराबबंदी कानून तो लागू है, शराब बंद नहीं है

बिहार में शराबबंदी का ढिंढोरा खूब पीटा जाता रहा है. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इसे लेकर अपनी पीठ जब-तब थपथपाते रहते हैं. सरकार ने कानून भी बना डाला लेकिन सच तो यह है कि शराब बिहार में इन दिनों पहले से ज्यादा बिक रहा है. पहले लोग शराब खरीदने के लिए दुकान जाते थे, अब घर बैठे उन्हें मिल जाती है. शराब का नया कारोबार शुरू हो गया है और इस कारोबार में युवाओं को भी शामिल कर लिया गया जो कोचिंग संस्थानों में शिक्षा हासिल कर रहे हैं. उन्हें कोरियर ब्वाय के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है. शराब का धंधा पहले से ज्यादा फलफूल रहा है. प्रशासन मस्त है और शराब बेचने वाले भी. सौ की शराब अब पांच-छह सौ में मिलती है. गांवों में शराब चुलाने की भट्टियां लगा दा गईं हैं और एक समानांतर व्यापार खड़ा कर डाला गया है. लेकिन सरकार पीठ थपथपा रही है कि उसने बिहार में शराब बंदी लागू कर डाली है. हाईकोर्ट ने भी सरकार के दावे पर सवाल खड़े कर डाले हैं.

पटना हाईकोर्ट ने शराबबंदी कानून को लेकर न्यायपालिका की कठिनाइयों से राज्य सरकार को अवगत कराया है. कोर्ट ने राज्य सरकार को 24 अक्टूबर तक जानकारी देने को कहा है कि निचली अदालतों में दो लाख से भी अधिक मुकदमों और शराबबंदी मामलों के बढ़ते बोझ से राज्य सरकार किस प्रकार से निपटेगी. राज्य सरकार को हाईकोर्ट ने आईना दिखाया है. सवाल यह है कि अगर बिहार में शराबबंदी लागू है तो फिर इतने मामले क्यों दर्ज किए गए. इससे साफ है कि सरकार का शराबबंदी का दावा खोखला है. जस्टिस सुधीर सिंह और न्यायाधीश अनिल कुमार उपाध्याय की दो सदस्यीय खंडपीठ ने 2016 से लागू पूर्ण शराबंदी से उपजे सवालों से राज्य सरकार को आगाह किया. अदालत ने बड़ी तादादों में दर्ज हो रहे मुक़दमे को अलार्मिंग स्थिति की संज्ञा दी.

दो जजों की खंडपीठ ने उत्पाद अधिनियम के उल्लंघन से संबंधित कुछ मामलों की सुनवाई करते हुए गहरी चिंता जताई. पहले इस मामले पर न्यायाधीश उपाध्याय की अदालत में सुनवाई चल रही थी. बाद में उसे मुख्य न्यायाधीश की बेंच को भेज दिया गया. मुख्य न्यायाधीश ने इसे लोकहित याचिका करार देते हुए इसे दो सदस्यीय खंडपीठ गठित कर दी. खंडपीठ ने गृह सचिव और पटना हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार को एक साथ नोटिस जारी किया. अदालत ने उनसे जानकारी देने को कहा है कि आखिर इन मुकदमों की सुनवाई वर्तमान समय की आधारभूत संरचना से कैसे संभव है. खंडपीठ ने कहा कि हर दिन ऐसे मुकदमों की तादाद बढ़ रही है. स्थति नियंत्रण से बाहर दिखने लगी है. इसलिए ऐसे विषम स्थिति से निपटने के लिए राज्य सरकार को तैयार रहना होगा.

खंडपीठ ने कहा कि इतने मुकदमों की सुनवाई के लिए जजों और कर्मचारियों की संख्या बढ़ानी होगी. विशेष अदालतों का गठन करना होगा. निचली अदालतों को पूर्ण रूप से कंप्यूटरीकृत करना होगा. पुलिस प्रशासन को पूरी मुस्तैदी दिखानी पड़ेगी. हलफनामा के माध्यम से कोर्ट को जानकारी दी गई कि निचली अदालतों में शराबबंदी के 2,07,766 (दो लाख सात हजार सात सौ छियासठ ) मामले लंबित हैं, जबकि हर एक जिले में इससे निपटाने के लिए सिर्फ एक विशेष अदालत है. बिहार में 2016 में शराबबंदी कानून लागू होने के लगभग तीन साल के अंदर 1,67,000 लोगों की गिरफ्तारी, 22,467 वाहनों को जब्त करने के अलावा करीब 54 लाख लीटर से अधिक शराब जब्त किया गया है. इससे निचली अदालतों का काम कई गुना बढ़ गया है.

एक तालिका प्रस्तुत कर बताया गया कि शराबबंदी से जुड़े सबसे ज्यादा 28,593 मामले सिर्फ पटना में लंबित हैं. इसमें अभी तक सिर्फ ग्यारह मामलों का ही निपटारा किया गया है. गया में 11,221 मुकदमे, मोतिहारी में 9,979 , कटिहार में 8867 , सासाराम में 8,167, बेतिया में 7,881, छपरा में 7,344 , समस्तीपुर में 6,978, मुजफ्फरपुर में 6,834, नवादा में 6,774 , मधुबनी में 6,651 , गोपालगंज में 5,937 , अररिया में 5,792 , बांका में 5,453 , पूर्णिया में 5,359 , नालंदा कोर्ट में 5,287 , बक्सर में 4,860, जहानाबाद में 4,373, दरभंगा में 3,790 और भागलपुर में 3,022 शराबबंदी से जुड़े मामले लंबित हैं. अदालत ने इस पर गंभीर चिंता जताई है. शराबबंदी के बावजूद इतनी बड़ी तादाद में मुकदमे लंबित होने की वजह से सरकार के दावों पर सवाल खड़ा होना लाजमी है.

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