विलुप्त होती जा रही है बधाइयां गीत की गुनगुनाहट, भूखमरी के कगार पर पहुंच पलायन को मजबूर हैं पमरिया समुदाय

संपूर्ण बिहार का प्रचलित पमरियाा लोक नृत्य अब विलुप्ति के कगार पर पहुंच गया है जिसे देखने व सुनने के लिए लोगों को नसीब नहीं हो पा रहा है। बिहार के सांस्कृतिक विरासत को सहेजता पमरिया नृत्य अपनी खास विशेषता के कारण प्रसिद्ध रखती है। जब ग्रामीण अंचलों में बच्चों का जन्म होता है तो पमरिया समुदाय के लोग बच्चे को आशीष देने के उद्देश्य से पहुंचकर बधाइयां गाते हैं। माना जाता है कि इससे बच्चे की उम्र लंबी होती है। बुजुर्गों को माने तो यह परंपरा राम जन्म से ही चलता आ है, जिसका उदाहरण उसके गीतों में स्पष्ट दिखता है। “राजा दशरथ के चार ललनवा हो, रामा खेलेला अंगनवा हो….

मुख्य रूप से उत्तर बिहार के तिरहुत, सीमांचल कोसी सहित मिथिलांचल के नस नस में बसने वाली पमरिया लोकनृत्य नृत्य में पमरियाा समुदाय के लोग नृत्य करते हुए सोहर, बधाइयां तथा खिलौना गीत गाकर बच्चे को आशीष देते हैं। फिर कोरस मंडली के नृत्यकों के द्वारा पांव में घुंघरू, हाथ में खजुरी के साथ बच्चे को गोद में लेकर नृत्य करते हुए लोक गाते हैं तथा उसके सहयोगी अपने वाद्य यंत्र ढ़ोलक, ढ़ोलकिया पर ताल सुर के साथ बजाते हुए गाते हैं। नृत्यकों का वेशभूषा प्रभावशाली छवि में लहंगा, चोली, दुपट्टा से लिपटा रहता है। जिससे मनमोहक वातावरण मंत्रमुग्ध हो जाता है और उनके मधुर गीतों को सुनने में आनंद मिलता है।

लोकगीतों की मानें तो उनमें प्रसिद्ध..
“तिलकोरा पातक बचका, चुड़ा मांछ आओर परिया नाचे गामे में गाम…..,
अयोध्या में आनंद भए श्ररामचंद्र जी के जन्म भाईल….,
ललना दे खुशी भएल…..,
पटना शहर के सोनरा मंगवा के कंगना गढवा देलकई ना…..
जैसे लोकगीतों को सुनकर बधाइयां सुन रहे लोगों का मन आनंद से प्रफुल्लित हो जाता है।

मगर वर्तमान परिपेक्ष में पमरिया का दशा और दिशा को देखा जाए तो आज इन गीतों को गाने वाले व्यक्ति समाज के मुख्यधारा से अलग होते जा रहे हैं। इसका सबसे बड़ा कारण है कि लोग आधुनिक युग में इतनी आधुनिकृत हो गए हैं कि अब पमरिया नृत्य को लोग भूलाते जा रहे हैं। जब भी किसी बच्चे का जन्म होता है तो लोग बड़ी पार्टियां-फंक्शन करके जन्मदिन या छठी का सेलिब्रेशन करते हैं। जिसमें डीजे के धुन व आधुनिक वाद यंत्र के धुन पर थिरकते और नाचते हैं और आनंद लेने का प्रयत्न करते हैं। मगर जो आनंद हमें जन्मदिन की बधाइयां सुन सुन के आता था वह परंपराएं में कैद हो विलुप्त होती जा रही है। जिस कारण इस समुदाय की स्थिति इतनी दयनीय हो गई है कि वे लोग अपने मुख्यधंधा को छोड़कर पलायन को मजबूर हैं। जिस कारण उनकी रोजी-रोटी पर आफत सी बन गयी है।

मिथिलांचल के दरभंगा जिला अंतर्गत बेनीपुर प्रखंड के महीनाम गांव में पमरिया समुदाय के अधिकांश लोग नृत्य-गायन के माध्यम से अपना जीवन यापन करते हैं। इसी गांव के अमरुल पमरिया जो विगत दो दशकों से बखरी में रखकर बधाइयां गीत गाने व नाचने का काम करते हैं। उन्होंने बतलाया कि हम लोग वर्षों पूर्व गांव से चलकर बखरी आयें और घर-घर जाकर बच्चों के जन्म पर बधाइयां गाने काम करते हैं। परंतु अब लोगों के द्वारा हमें पहले जैसा स्नेह-प्यार नहीं मिल पाता है। वहीं दान स्वरूप पहले जो हमें दक्षिणा मिलता था उससे हम लोग सुखीपूर्वक जीवन यापन करते थे, उसमें भारी कमी दिखती है। यही कारण है कि हमारे गांव के लोग अब अपने इस पुश्तैनी धंधे को छोड़कर पलायन को मजबूर हैं और बाहर जाकर काम करते हैं।

तो कुल मिलाकर देखा जाए तो पमरिया समुदाय जो बधाइयां गीत गाकर लोगों को खुशियां बांटने का काम करते थे, अब उनके घर में ही खुशियां नदारद हो गई है।