नागपंचमी के झांप बनकर तैयार अब नहीं मिलता है झांप का सही मेहनतनामा

न्यूज डेस्क : माली मालाकार समाज द्वारा नागपंचमी के दिन चढ़ावे के लिए झांप बनाकर तैयार किया है। ऐसी मान्यता है कि झांप के चढ़ावे से भगवान शिव व उनकी मानस पुत्री मनसा देवी प्रसन्न होती है और हर प्रकार का डर भय संकट काल का अंत होता है। नागपंचमी के दिन लोग दूध खीर लावा के अलावे झांप को भी नाग देवता को समर्पित करते हैं। मंडपनुमा यह आकृति पर्व त्यौहारों के का संकेत होता है। आमतौर पर दुर्गा पूजन स्थान, ब्रह्मस्थान, गहबर, गोसाई स्थान, ग्राम देवता व अन्य पूजास्थलों पर देवी देवताओं के लिए मुकुट-सरीखे चढ़ावा बनाए जाने वाले आकर्षक झांप को बनाने वाले कलाकार अब कमतर होने लगे हैं। अब कल तक माली मालाकार जाति के झांप बनाने वाला खानदानी जीवकोपार्जन का मुख्य पेशा अब दिनोंदिन विलिन होता जा रहा है। अब माली जाति के लोग भी अपनी माली हालात को सुधारने के लिए सरकार की उदासीन रवैये को देखकर अपनी खानदानी झांप बनाने वाली पेशा छोड़कर दिल्ली, पंजाब,हरियाणा, मुम्बई एवं कोलकता समेत अन्य महानगरों में मजदूरी करने चले जाते हैं।

माली मालाकार जाति के 70 वर्षीय जयप्रकाश मालाकार का कहना है कि झांप बनाना माली मालाकार जाति का जीवकोपार्जन का खानदानी पेशा है। पहले हम लोग अनवरत झांप बनाकर बेचते थे। झांप बनाने के लिए सुदूर ग्रामीण इलाकों के पोखर, चौर, तालाब आदि गड्ढे में भरे पानी में तैर कर कोढ़िला काटकर माथे पर लाते थे। सोनई का खेती करते थे। सोनई के संठी, कोढ़िला झांप बनाने का मुख्य कच्चा माल है। कैसे बनाए जाते थे झांप सोनई से संठी निकाले जाते थे। कोढ़िला को काटकर सुखाया जाता था। फिर कोढ़िला से तेज धारदार छूरी से कागज निकाला जाता था। कोढ़िला एवं उससे निकला कागज एवं संठी के सहयोग से झांप तैयार किया जाता था। लाल, पीला एवं हरा रंग से झांप में फूल एवंपक्षी का आकर्षक चित्र बनाया जाता था। अब सुखाड़ हो जाने से चौर सुख जाता है। कोढ़िला और सोनई की खेती नहीं हो पाती है। जिससे कोढ़िला एवं संठी का उपज बहुत कम हो गया है। कोढ़िला के अभाव में पहले सादा कागज साटकर नाग, त्रिशूल, हाथी,घोड़ा फूल और पक्षी का चित्र बनाया जाता था। अब लागत के अनुपात में झांप का मूल्य नहीं मिलने से हमलोग रंगीन कागज ही चिपका देते हैं। लोग पूजा के अवसर पर झांप खरीदकर चढ़ौना के लिए ले जाते थे। बखरी प्रखंड में माली मालाकार जाति की आबादी बहुत कम है। जिसमें बखरी मालाकार टोला, संतोषी टोला, सलौना, मक्खाचक, मोहनपुर, घाघड़ा, परिहारा, शकरपुरा, बगरस आदि जगहों के एक दो घर के हिसाब हैं।
क्यों इस पेशा से लोग मूंह मोड़ने लगा है

माली मालाकार समाज के राजेश मालाकार का कहना है कि महिलाएं अपने गांव एवं आसपास के गांव में जाकर घर-घर फूल पहुंचाती थी। जिस फूल से लोग पूजापाठकरते थे। सामाजिक बदलते परिवेश एवं बढ़ते आपराधिक घटना को लेकर अब महिलाफूल पहुंचाने नहीं जाती है। जब मेहनत के अनुसार झांप के कीमत नहीं मिलने से इस जाति के लोग इस पेशा से मूंह मोड़कर बच्चों को पढ़ाने-लिखाने में लग गए हैं। पारिवारिक सदस्यों का भरण-पोषण के लिए खेती-बाड़ी, मवेशी पालकर एवं झांप बनाकर बच्चों को पढ़ाई-लिखाई कार्य चलाते हैं।

80 वर्षीय बांके मालाकार से अपने खानदानी मुख्य पेशा झांप बनाने के सवाल पर पूछा तो वे लोग कहने लगा कि मेहनत एवं लागत के अनुपात में लोग पैसा देकर झांप नहीं करीदना चाहता है। कच्चा माल कोढ़िला एवं संठी नहीं मिलता है इसलिए लोग इस पेशा से मूंह मोड़ने लगा है। हमलोग को आर्थिक उत्थान के लिए पूर्व मुख्यमंत्री स्व. कर्पूरी ठाकुर ने अपने मुख्यमंत्री काल में 1977 में माली मालाकार जाति को आबादी के आधार पर अतिपिछड़ा वर्ग के कोटि में रखा। जिस का प्रतिफल है हमलोग निरंतर आगे बढ़ रहें हैं जिसका परिणाम है आजादी के आठ दशकों बाद हमारे छोटे भाई स्व विष्णुदेव मालाकार का पुत्र कौशल किशोर क्रान्ति शिक्षक की नौकरी कर रहा है।

हमलोग मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से मांग करते हैं कि माली मालाकार जाति को अनुसूचित जाति कोटि में शामिल करने के लिए कई बार मिलकर इस जाति के आर्थिक दशा एवं खानदानी पेशा के सम्बन्ध में ध्यानाकर्षण कराया है। आश्वासन के बाद भी कमजोर वर्ग एवं जाति संख्या बल कम होने के कारण किसी भी सरकार में इस जाति के दशा एवं दिशासुधार करने के लिए आश्वासन को पूरा करने के लिए कोई सकारात्मक कदम नहीं उठाया जा सका।