कांग्रेस नेतृत्व को हवा के रूख को भांपना होगा नहीं तो खत्म हो जाएगी कांग्रेस!

नई दिल्ली: मध्यप्रदेश में कमलनाथ सरकार के खिलाफ ज्योतिरादित्य सिंधिया की बगावत से कांग्रेस बिखर गई है. दरअसल यह इस टूट का एक प्रतीक भर है, दरार तो समूची कांग्रेस की भीतरी परतों में स्पष्ट रूप से महसूस की जा रही है. भारत की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी के भीतर नैसर्गिक रूप से नेतृत्व का हस्तांतरण ना होने से कई समस्याएं पैदा हो गई हैं. कमोबेश कांग्रेस में ऐसी ही स्थिति हर उस राज्य और इकाई में दिखाई दे रही है, जहां युवा बनाम वरिष्ठ के बीच नेतृत्व का संघर्ष जारी है. ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस में इसलिए नाराज थे कि कमलनाथ को मुख्यमंत्री बना दिया गया। वह खुद मुख्यमंत्री बनना चाहते थे.

कमलनाथ ने मुख्यमंत्री बनते ही इस बात का ख्याल रखा कि सिंधिया समर्थकों को सत्ता का लाभ न मिलने पाये . कांग्रेस नेतृत्व चाहता, तो समय रहते स्थिति को नियंत्रित कर सकता था. राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष पद छोड़ने के बाद स्थिति और विषम हो गई. नाराजगी बढ़ती गई, दरार गहराती गई और सत्ता के मुहाने पर बैठी भाजपा ने इसका लाभ उठा लिया.राजनीति में ऐसा होता रहा है, परंतु सवाल यह है कि क्या सिंधिया भाजपा में जाकर मध्यप्रेदश के मुख्यमंत्री बन पायेंगे ? दूसरा महत्वपूर्ण सवाल यह है कि जिस तरह सिंधिया कांग्रेस में समूचे मध्यप्रदेश के सर्वमान्य नेता थे, क्या भाजपा में उन्हें यह सम्मान मिल पायेगा ? सवाल यह भी है कि ग्वालियर-चंबल संभाग में पहले से मौजूद भाजपा नेताओं की एक मजबूत पंक्ति उन्हें अपना नेता स्वीकार कर पायेगी ?

खासकर तब जब इन नेताओं की राजनीति का आधार वर्षों से सिंधिया विरोध ही रहा है. वैसे भी, भाजपा में सिंधिया घराने को उनके कद के मुताबिक सत्ता में हिस्सेदारी कभी नहीं मिली. बहरहाल, मध्यप्रदेश कांग्रेस में सब कुछ ठीक ठाक नहीं चल रहा है , इस बात का अंदाजा कांग्रेस में सभी को था. संख्या बल भी इतना मजबूत नहीं था कि निश्चिंत होकर बैठा जा सके. ऑपरेशन लोटस की संभावनाएं पल प्रतिपल बनीं हुईं थीं। बावजूद उसके कांग्रेस ने सब कुछ कमलनाथ के भरोसे क्यों छोड़ दिया?

यह सच है कि कांग्रेस का वैचारिक धरातल अब पहले जैसा मजबूत नहीं रहा है। सत्ता से बेदखल होने के बाद इसमें और गिरावट आई है. ऐसे में युवाओं की महत्वकांक्षा को संभाले रखना कांग्रेस के भविष्य के लिये बहुत जरूरी है क्योंकि युवा ही कांग्रेस के लिए अच्छे दिन ला सकते हैं. बुजर्ग कांग्रेसियों का जमघट नए और युवा कांग्रेसियों स्वीकारने को तैयार नहीं है, वह कांग्रेस के लिए शुभ संकेत नहीं है. राजस्थान में भी सचिन पायलट और अशोक गहलोत के बीच हालत ठीक वैसी ही है जैसी मध्य प्रदेश में सिंधिया और कमलनाथ के बीच थी. लिहाजा युवा नेतृत्व किस दिशा में सोच रहा है, कांग्रेस के वरिष्ठ नेतृत्व को जल्द ही हवा के इस रुख को भांपना होगा .