बिहारी चौकीदार बनते हैं, खान या बच्चन नहीं

डेस्क : (प्रवीण कुमार ) इंसान या तो मजबूत बेस वाला हो या फिर उसका कोई ईमान न हो। फ़िल्मी दुनियां में या तो वो कपूर हो, धवन हो, खान हो, भट्ट हो या फिर उसका इनमें से कोई एक उसका गॉड फादर हो। या तो वो किसी बड़ी मछली का रिश्तेदार हो या फिर वो टू बीएचके से ऊपर का ख्वाब न पाले… छोटी मछली बने रहकर अपना तालाब बदल ले।

अबे जब तुमको पता है कि तुम बिहार से हो तो बिहारी तुम मनोज वाजपेयी बनते या फिर पंकज तिवारी, शेखर सुमन बन लेते। बहुत जोर था अंदर और जोड़ – तोड़ भी करना आता था तो शत्रुघन सिन्हा बन जाते… लेकिन ये क्या कि बिहारी हो फिर कैसे शाहरुख़ खान या अक्षय कुमार बनने का ख्वाब देखने लगते हो… बिहारी न तो सत्ता, न अंडरवर्ल्ड और न ही उद्योगपतियों की दुनियां में मुंह मार पाए और बनने चलोगे अमिताभ बच्चन और सलमान खान ?

अब जबकि ये सब गुण नहीं था तुम्हारे अंदर, तो हिम्मत रखते… घर वापसी कर लेते… अपने घर क्या रोटी कम थी , जो खोखली चमक के दवाब में लटक लिए ? तुम बिहारी थे , फिजिक्स ही पढ़ते, इंजीनियरिंग ही करते… क्यों आये श्यामक डावर की बातों में ?

पता है दुनियां अब सिर्फ तुमको आजन्म कायर नहीं कहेगी बल्कि हर एक उस बिहारी को कमजोर समझेगी जो बड़े सपने लेकर घर से बाहर निकलता है। तुमको अब कोई “काई पो छे” “एमएसडी”, “छिछोरे”, “केदारनाथ” या फिर “सोन चिड़ैया” के लिए याद नहीं रखेगा… कोई न तो फिजिक्स ओलम्पियाड या AIEEE के लिए याद करेगा तुमको और न ही कोई तुमको तुम्हारे स्पेस शटल की चाहत के लिए याद रखेगा… किसी को ये याद नहीं रहेगा की तुम्हारे बरामदे में खगोलीय दूरबीन भी था, सबको अब याद बस ये रहेगा कि तुम्हारे बेडरूम में डिप्रेशन की गोली रखी थी, तुम्हें तो सिर्फ और सिर्फ इसलिए याद रखा जायेगा की तुमने राजपूत होने पर अफ़सोस जताया था, कुछेक लीचिंग को देखकर तुमने हिन्दू होने पर कष्ट जता दिया था, तुम एनपीआर और सीएए विरोधी थे। ….अब जबकि तुम मानसिक रूप से परिपक्व हो गए थे, तुम्हारे पास ये सब दाग धोने का वक़्त था… सब पटक कर धोखा दे गए तुम तो, बिहारी होकर घुटने टेक दिए तुमने तो बे।

फ़िल्मी दुनियां एक समुद्रीं भंवर है जिसमें आदमी फंसता है तो फिर बाहर की दुनियां से कट जाता है। ये कमोबेश क्राइम की दुनियां सरीखी है जिसमें आदमी एक बार आगे बढ़े तो फिर पीछे नहीं हो पाता। वो या तो आस पास के गैंग को सेट कर आगे बढ़ जाता है या फिर फना हो जाता है। ग्लिसरीन के सहारे आंसू बहाते लोगों के असली आंसू सूख जाते हैं, वो पत्थर दिल निर्दयी बन जाते हैं और उन्हें सिर्फ स्वयं का स्वार्थ दिखता है। यहाँ दुःख भी किरदारों की तरह नकली होते हैं, कोई दोस्त नहीं होता यहाँ, सब अपने अपने किरदार के परफॉर्मेंस और उसके आउटपुट पर केंद्रित रहते हैं, मशीन हो जाते हैं सब के सब।

ये सभी फ़िल्मी मशीन सब कुछ जानते तो हैं लेकिन रियेक्ट तब तक नहीं करते हैं जब तक की तुम खेल से आउट नहीं हो जाते, जब तक कि तुम शेष नहीं हो जाते। वो चाहे कोई चोपड़ा हो या फिर कंगना या कोई भट्ट या फिर अपना कृत्रिम कन्धा लिए कोई करण जौहर… सब के सब बिहार जैसे बाहरी द्वीप वाले लोगों के लिए मात्र दयाभाव रखते हैं। जबतक तुम दया के पात्र हो, दया भाव मिलेगा और जरा सा सबल हुए नहीं कि तुमसे पहले फ़िल्में छीन ली जाएँगी, फिर तुम्हारे खिलाफ बॉलीवुड में माहौल बनाया जाएगा, तुमसे जुड़े हर एक आदमी को न केवल कमजोर कर दिया जायेगा बल्कि मजबूर और लाचार भी।

मगरमच्छ से आँसू बहाने वाले बॉलीवुड के पुराधाओं… चड्ढाओं, चोपड़ाओं, जौहरों, खानों, कपूरों – तुम सब के सब आज नहीं तो पाँच दिन बाद शांत हो जाओगे। सारे राज दफ़न कर दोगे, बस अपने प्रोडक्शन हाउस, अपने खानों, कपूरों और धवनों को ज़िंदा रखने को सब पचा जाओगे… वैसे ही जैसे तुम सब गुरुदत्त को पचा गए, परविन बॉबी को पचा गए, नफ़ीसा जोसेफ़ को पचा गए, जिया खान और दिव्या भारती को पचा गये…. सुशांत तो ख़ैर बिहारी था…. सूपाच्य बिहारी !