बेगूसराय के लखनपुर में बंगाली विधि विधान से की जाती माता दुर्गा की पूजा, जानिए…

भगवानपुर (बेगूसराय) प्रखंड अंतर्गत बलान नदी की कछार पर अवस्थित लखनपुर में माता दुर्गा की पूजा की अलग ही परम्परा रही है। इस आस्था स्थल और मैया के दरबार के संबंध में कई किवदंती प्रचलित है। मंदिर के पूर्व प्रधान पूजारी स्वर्गीय अविनाश चक्रवर्ती – उर्फ टुना चक्रवर्ती ने एक मुलाकात के दौरान पूर्व में बताया था कि हमारे पूर्वज वर्षो पूर्व मुगलकाल में पश्चिम बंगाल से यहां आए थे उन दिनों पश्चिम बंगाल के नदिया जिला पर जब मुगलों का आक्रमण हुआ था तो मुगलों से त्रस्त होकर वहां से कई परिवार जहां-तहां पलायन कर गये।

उन्हीं लोगों में से कुछ लोग बेगूसराय के विभिन्न गांवों में आकर बस गये। उन्हीं परिवारों में मनराज सिंह का परिवार भी शामिल था जो भगवानपुर प्रखंड के लखनपुर ग्राम में बस गये थे। कहा जाता है कि मनराज सिंह जब नदिया जिला से जब भागे थे तो अपने राज पुरोहित एवं अपनी आस्था की इष्ट माता की पिंडी भी लेकर आए थे। आज वह परिवार नहीं रहा, लेकिन इन्हीं के रिश्तेदार बछवाड़ा प्रखंड के बेगमसराय निवासी महेश प्रसाद सिन्हा इस देवी मंदिर के मेरपति हैं। इनसे पहले कई पुश्तों से इन्हीं के पूर्वज मेहरपति हुए हैं।

प्राप्त जानकारी के अनुसार पूर्व में उक्त मंदिर के दो मेरपति हुआ करते थे एक बेगमसराय व एक लखनपुर गांव के साहु जी परिवार से हुआ करते थे। कहा जाता है कि एक बार मेला के दौरान नौका दूर्घटना में एक महिला की मौत हो जाने के कारण भय से साहु जी परिवार उक्त मंदिर के मेरपति से हट गए।तब से बेगमसराय के ही लोग मेरपति बनते रहे हैं। मनराज सिंह अपनी काबिलियत के बल पर न सिर्फ इलाके के तहसीलदार बन गए थे बल्कि लखनपुर के जमींदार भी बन गए थे और साथ आए राजपुरोहित के उचित सलाह पर साथ लाए मां की पिंडी को सिद्धमंत्रो के जाप के साथ यहां स्थापित किया जो पिन्डी आज भी शक्ति पिण्डो के रूप में विराजमान है।

नित्य प्रतिदिन सुबह-शाम यहां पूजा-पाठ की प्रथा निरंतर है जिसके लिए सहायक पुजारी के रूप में सीताराम झा नियुक्त है। यहां सिद्ध माता की पूजा आराधना का विधि-विधान भी अन्य इलाकों से कुछ अलग है। यानि बंगाल और मिथिला की तर्ज पर पारम्परिक पूजा का विधान यहां प्रचलित है। यही वजह है कि माता के आगमन और प्रस्थान दोनों बली से ही शुरू होता है। प्रथा के मुताबिक अश्विन कृष्णपक्ष बुद्धनवमी तिथि के दिन ही यहां कलश स्थापना होता है। पुजारी की मान्यता है कि इसी दिन शरदकाल को तुला राशि में देवी का आगमन होता है तथा इसी दिन भगवान श्रीराम ने लंका पर विजय हेतु देवी का आह्वान किया था। इस दिन भी बलि की प्रथा चलायमान है।

इसके बाद पुनः अश्विन शुक्ल पक्ष चतुर्थी को भी बलि दी जाती है। सप्तमी तिथि के तृतीय कलश की स्थापना नवपत्रिका पूजा के उपलक्ष्य मे किया जाता है। सप्तमी की रात्रि मे ही पूर्ण विधि-विधान के साथ देवी की आराधना-पूजा की जाती है, जिसे जागरण भी कहते हैं। महाअष्टमी तिथी की रात्रि में निशापूजा कालरात्रि के बाद भेड़, खस्सी की बलि दी जाती थी। नवमी तिथि को महानवमी पूजा के बाद महिष तथा भेड़ का संकल्प किया जाता था जो अब विगत कई वर्षों से नहीं होता है, वहीं मध्यरात्रि के बाद मंदिर के अंदर-बाहर धो-पोंछकर पुजारी कुछ विशेष लोगों के साथ मंदिर में फुलहास का कार्यक्रम आरंभ करते हैं।

देवी के हाथों में पांच लाल अड़हुल की देकर उपस्थित भक्तगण भजन कीर्तन कर मां की प्रार्थना करते हैं। भक्तों की आराधना-पूजा उस समय सफल मानी जाती है, जब मां के हाथों की कली फूल बनकर अपने आप धरा पर आ गिरती है, देवी की प्रसन्नता के प्रतीक फूल को श्रद्धालु न सिर्फ सहेज कर रखते है, बल्कि श्रद्धा-भक्ति के साथ ताबिज आदि में भी भरकर पहनते हैं। फुलहास के उपरांत भी बलि दी जाती है, लेकिन कोरोना काल से खस्सी की बलि प्रथा स्थगित है उसके जगह सिसकोहरा की बली वर्तमान में हो रही है।

नवमी के दिन जहां मंदिर में प्रवेश करना मुश्किल हो जाता है, वहीं ब्राह्मण भोज और मुंडन जैसे शुभकार्य भी संपन्न कराये जाते हैं विजयदशमी के दिन दो-तीन साल पूर्व भैंस की बलि का भी विधान था। बलि के बाद देवी के चरणों में पुष्पांजलि अर्पित की जाती है और फिर प्रतिमा विसर्जन कार्यक्रम के दौरान अन्नपूर्णा देवी का भोग लगाने का नियम है।

शोभा यात्रा कार्यक्रम के बीच भी बलि की प्रथा है जिसे यात्रा बलि कहते है ऐसे आस्था स्थल को प्रशासनिक स्तर पर न सिर्फ विकसित करने की जरूरत है, बल्कि इस धरोहर के रूप में संवारने की आवश्यकता है। किंतु प्रशासनिक उदासीनता के चलते इस ऐतिहासिक महत्व के आस्था-स्थल का स्वरूप निखर कर सामने नहीं आ सका है। इस दिशा में साधन सुविधा के लिए क्षेत्रीय जनप्रतिनिधि की भूमिका भी निराशाजनक ही रही है।